सुशील यादव की पुस्तकें
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  • शिष्टाचार के बहाने

    पुलिस मुहकमे में फरमान जारी हुआ कि वे शिष्टाचार सप्ताह मनाएँगे।
    आम जनता का दहशत में आना लाज़िमी सा हो गया।
    वे किसी भी पुलिसिया हरकत को सहज में लेते नहीं दीखते।
    डंडे का ख़ौफ़ इस कदर हावी है कि सिवाय इसके, वर्दी के पीछे सभ्य सा कुछ दिखाई नहीं देता। पुलिस के हत्थे आप चढ़ गए, तो पुरखों तक के रिकार्ड और फ़ाइल वे मिनटों में डाउनलोड करवा लेते हैं। आप छोटे-मोटे चोर हैं, तो लानत भेजेंगे की आपने कहीं बड़ी डकैती क्यों नहीं डाली? क्यों कि डकैती किये होते, तो आपका रुतबा-आतंक रहता वे आपको पीटते कम सहलाते ज़्यादा...। यहाँ तो हर आने वाला अर्दली सिपाही से लेकर थानेदार लात धुन के चल देता है। यहाँ की भाषा, व्याकरण माँ, बहनों के  क़सीदे पढ़ने से नीचे की कभी रहती ही नहीं।

    - शिष्टाचार के बहाने

    मैं अगर डरता हूँ तो केवल कुत्तों से।
    ये ख़ौफ़ बचपन से मुझपर हावी है। स्कूल से छुट्टी होते ही घर लौटते समय टामी का इलाक़ा पड़ता था। मज़ाल है कि कोई उससे बच के निकल जाए! क्या सायकल क्या पैदल, क्या अमीर क्या ग़रीब, क्या हिन्दू-मुसलमान सब को सेकुलर तरीक़े से दौड़ा देता था। हम बस्ता लटकाए एक कोने में दुबके हुए से रहते कि कब टामी का ध्यान बँटे और हम तड़ी-पार कर जाएँ। विपरीत दिशा में आते हुए लोगों पर उसका भौंकना चालू होता था कि हम टाइमिंग एडजस्ट कर लेते थे कि इतने सेकण्डों में हम टामी क्षेत्र से बाहर निकल जायेंगे। कभी-कभी हमारा गणित फेल हो जाता था वो आधे रास्ते अपने पुराने शिकार को छोड़ हम पर पिल जाता था। बस्ते को उस पर पटकते-फेंकते, बजरंग बली की जय जपते, हाँफते घर पहुँचते। घर में डाँट पड़ती, फिर टामी को छेड़ दिया न। बता देती हूँ चौदह इंजेक्शन लगेंगे, वो भी पेट में। हम अपनी सफ़ाई क्या देते, क्या समझाते कि किस सिचुएशन में फँसे थे?

    - तेरे डॉगी को मुझपे भौंकने का नइ