मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग की पुस्तकें
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  • ठगिनी और अन्य कहानियाँ

                    रातों के साथ जाने कितने राज़ जुड़े होते हैं। इसी लिये रातों के क़िस्से हमेशा दिलचस्प हुआ करते हैं। लेकिन रातों के अक्सर क़िस्से रातों की तरह स्याह हुआ करते हैं। रात की तारीक़ी में अक्सर, एक दूसरी ही जमात रिज़्क़ की तलाश में निकलती है। यह जमात भी दिन में कारोबार करने वाली जमातों से मिलती-जुलती, लेकिन कई बार बिल्कुल अलग होती है। इनके कारोबार भी कभी दिन के कारोबार जैसे लेकिन कई बार बिल्कुल अलग होते हैं। वे कभी टैक्सी चलाने वाले कभी रिक्शा चलाने वाले तो कभी बिल्कुल मुख़्तलिफ़ काम धन्धों से जुड़े होते हैं।

                    तो यह क़िस्सा इन्हीं लोगों से जुड़ा हुआ है, आप चाहें तो इन्हें निशाचर कह लीजिये… लेकिन ध्यान रहे निशाचर शब्द के लिये अरबी भाषा में शब्द है- जिन्न।

    - कहानी "क़िस्सा एक रात का" से

     

    "तो क्या माता पिता को अपनी संतान के लिये सपने देखने का अधिकार नहीं?"

    "देखने का अधिकार है, लादने का नहीं।"

    "लेकिन उनके पास इसकी ताक़त भी नहीं होती। सिर्फ़ विश्वास होता है; अपनी संतान पर। क्या यह उनका कसूर है। क्या माता पिता को चाहिये कि सिर्फ़ अपने लिये सपने देखें, अपनी खुशियाँ अपनी मौज-मस्ती, अपने अधिकार। और संतान का क्या? क्या वे सिर्फ़ मौज-मस्ती का नतीजा है?

    XXX----XXX

    "… मुझे तो लगता है, आज भी स्त्री का स्त्रीत्व, उसका आत्मसम्मन, उसका स्वाभिमान ही सारी धन-दौलत पर भारी है। और इसी को अपने सामने नत-मस्तक देख ही ऐसे लोगों को आत्मसंतोष मिलता है; लेकिन …"

    - कहानी "ठगिनी" से