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रूहदारी
कई बार व्यथा इतनी प्रगाढ़ होती है कि लिखते समय, मन, आँखें, भाव, सम्वेदनाएँ, अल्फ़ाज़, क़लम और पन्ने, ये सब इतने पुरनम और पुरअश्क़ होते हैं और वे किस शक्ल में ढलते जाते हैं, पता ही नहीं चलता। जब ज्वार थमता है, तब मालूम पड़ता है कि कविता या क़िस्सा क्या बन कर आया!
– डॉ. दीप्ति गुप्ता