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मेरे सनम
"दिल में दरिया है दर्द का,
जो लफ़्ज़ों में बहता है।
लिख देते हैं फ़साना ख़ुद का.
और ग़ज़ल बन जाती है।"दर्द देने वाला कोई बाहर वाला नहीं होता है। ग़म हो या ख़ुशी सब कुछ आपके अपनों से ही मिलता है। हमारी ज़िंदगी में सुख दुःख और लोगों का मिलना बिछ्ड़ना तो चलता ही रहता है। इन सभी घटनाक्रमों के बीच हमारे दिलो-दिमाग़ में जो अहसास और जज़्बात घूमते रहते
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अम्बर बाँचे पाती
... साँझ और रात भी कम सुन्दर नहीं। साँझ होते ही स्वर्णिम धूप के पन्ने गुलाबी होने लगे हैं, कहीं सिन्दूरी साँझ होने पर आकाश का लोहित होना और धूप का लेटना, घुली चाँदनी का आँगन के कसोरे में उतरने का रूपक, सर्द चाँदनी का रात भर चुम्बन उलीचना अभिव्यक्ति सौन्दर्य में रंग भर देते हैं-
- साँझ ढली तो / स्वर्ण धूप के पन्ने / हुए गुलाबी।
- सिंदूरी साँझ / गगन है लोहित /
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दर्शन
प्रेम के असीम दरिया के पार है मंज़िल तेरी,
डूबकर मर-मिटने से दिले नादान क्यों घबराते हो?
समर्पण का तिनका ही ले जाएगा भवसागर के पार,
दिल के दर्पण में ईश्वर की परछाइयाँ क्यों बनाते हो?- दर्शन
हार कर अस्तित्व अपना, जो सर्वस्व पाता है,
जो हरे हर तम को, वो हरि कहलाता है।- राम हरे कृष्ण
साँसों की आरी काट रही है,
मन पर -
कुछ ज्ञात कुछ अज्ञात
लगता है कहाँ - कहाँ से बीत जायेगा जीवन
आजीवन खोजता ही रहूँगा अस्तित्व अपना
बोध होगा अपनत्व मेरी रिक्ति का
दुनिया को जब, तब मैं न होऊँगा
होगा मेरा अस्तित्व -
पर मैं अनभिज्ञ ही रहूँगा!!
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नंगी जलाई लाशें, कफ़नों का करके सौदा,
अपना है या पराया, कुछ भी न तूने सोचा,
तू भी बनेगा मिट्टी, अंजाम यही है!
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ताण्डवी -
क्या तुमको भी ऐसा लगा
कवि की मानसिकता पारदर्शी शीशे की तरह होती है। उसकी सारी भावनाएँ, संवेदनाएँ, धारणाएँ कुछ भी छिपते नहीं हैं बल्कि लेखन में उभर कर सामने आते हैं। डॉ. शैलजा सक्सेना की पुस्तक "क्या तुमको भी ऐसा लगा?" में आप पाएँगे कि शैलजा साधारण कवियत्री नहीं है। किसी भी समस्या के लिए भिन्न दृष्टिकोण या अनुभव की प्रतिक्रिया शैलजा की प्रकृति है। परन्तु डॉ. शैलजा की काव्य शैली और भाषा इतनी सहज है कि कविता