डॉ. अनिल चड्डा की पुस्तकें
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  • कुछ ज्ञात कुछ अज्ञात

    लगता है कहाँ - कहाँ से बीत जायेगा जीवन
    आजीवन खोजता ही रहूँगा अस्तित्व अपना
    बोध होगा अपनत्व मेरी रिक्ति का
    दुनिया को जब, तब मैं न होऊँगा
    होगा मेरा अस्तित्व -
    पर मैं अनभिज्ञ ही रहूँगा!!
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    नंगी जलाई लाशें, कफ़नों का करके सौदा,
    अपना है या पराया, कुछ भी न तूने सोचा,
    तू भी बनेगा मिट्टी, अंजाम यही है!
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    ताण्डवी निशाचरी को हो रहा अर्पण सवेरा!
    मेरे घर की चाँदनी पर छा गया काला लुटेरा!!
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    अंधों के युग में, अंधों सा मैं जी रहा हूँ!
    आँसुओं को मौन हो, घूँट-घूँट पी रहा हूँ!!
    - डॉ. अनिल चड्डा