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कुछ ज्ञात कुछ अज्ञात
लगता है कहाँ - कहाँ से बीत जायेगा जीवन
आजीवन खोजता ही रहूँगा अस्तित्व अपना
बोध होगा अपनत्व मेरी रिक्ति का
दुनिया को जब, तब मैं न होऊँगा
होगा मेरा अस्तित्व -
पर मैं अनभिज्ञ ही रहूँगा!!
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नंगी जलाई लाशें, कफ़नों का करके सौदा,
अपना है या पराया, कुछ भी न तूने सोचा,
तू भी बनेगा मिट्टी, अंजाम यही है!
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ताण्डवी निशाचरी को हो रहा अर्पण सवेरा!
मेरे घर की चाँदनी पर छा गया काला लुटेरा!!
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अंधों के युग में, अंधों सा मैं जी रहा हूँ!
आँसुओं को मौन हो, घूँट-घूँट पी रहा हूँ!!
- डॉ. अनिल चड्डा